दोस्तों आज मैं भगत सिंह के उस आखरी पत्र के बारे में जानकारी दे रहा हूँ जिसे उन्होंने फंसी पर चढ़ने से ठीक एक दिन पहले लिखा था। साथियों मेरा आपसे विनम्र गुजारिश है अगर आपके दिल में हमारे शहीदों के प्रति जरा भी सम्मान है तो इसे जरूर पढें। साथियों भगत सिंह ने जब यह पत्र लिखा था तो उनके मन में मौत का तनिक भी भय नही था और न ही फाँसी दिए जाने का पछतावा। उनके पत्र का जिक्र करने से पहले मैं आपको भगत सिंह के बारे में संक्षेप में कुछ जानकारी देना चाहता हूँ।
दोस्तों हमारे देश के महान पुरुष क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर सन् 1907 को पश्चिम पंजाब के लायलपुर जिले के बंग गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम सरदार किशनसिंह था। बचपन से ही क्रांतिकारी विचारों वाले भगतसिंह ने अपने जीवन में ब्रिटिश उपनिवेशवादी शक्तियों को तथा उसके साम्राज्य को उखाड़ फेकने का संकल्प ले लिया था। अपने क्रन्तिकारी साथियों -चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद 'बिस्मिल', अश्फाक उल्ला खाँ के साथ मिलकर उन्होंने एक क्रांतिकारी संगठन 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' बनाया। साइमन कमीशन का बहिष्कार करते हुए इस संगठन ने लाला लाजपत राय के ऊपर हुए प्राणघातक हमले का विरोध किया। जिनका कुछ दिनों के बाद निधन हो गया।उन्होंने इस घटना के जिम्मेदार पुलिश अधीक्षक सांडर्स की हत्या कर इसका बदला लिया 8 अप्रैल सन् 1929 को एसेम्बली हॉल में बम फेककर 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगाते हुए स्वयं को गिरफ्तार करवा लिया। उनको और उनके अन्य दो साथीयों रामप्रसाद बिश्मिल और अशफाक उल्ला खाँ को 23 मार्च सन् 1931 को फाँसी दे दी गई। बलिदान के एक दिन पहले अपने क्रांतिकारी कैदी साथियों को लिखे हुए तीसरे पत्र से उनकी त्याग भावना,देश के लिए भक्ति और सर्वस्व समर्पण का दृढ संकल्प स्पष्ट प्रकट होता है। उनका चरित्र निश्चय ही प्रेरणा का स्रोत है।
बलिदान से ठीक एक दिन पहले कैदी साथियों को लिखा गया अंतिम पत्र
साथियो ! 22 मार्च, 1931
स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता; लेकिन मैं एक शर्त पर जिन्दा रह सकता हूँ कि मैं कैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता।
मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतिक बन चूका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है - इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा हरगिज नहीं हो सकता।
आज मेरी कमजोरियां जनता के सामने नहीं है। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहीर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतिक चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए। लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएं अपने बच्चों को भगत सिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए क़ुरबानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।
हाँ, एक विचार भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थी तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरते पूरी कर सकता। इसके शिवाय मेरे मन में कभी लालच फाँसी से बचने का नहीं आया। मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा ? आज मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है, कामना है कि यह और नजदीक हो जाए।
आपका साथी
दोस्तों हमारे देश के महान पुरुष क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर सन् 1907 को पश्चिम पंजाब के लायलपुर जिले के बंग गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम सरदार किशनसिंह था। बचपन से ही क्रांतिकारी विचारों वाले भगतसिंह ने अपने जीवन में ब्रिटिश उपनिवेशवादी शक्तियों को तथा उसके साम्राज्य को उखाड़ फेकने का संकल्प ले लिया था। अपने क्रन्तिकारी साथियों -चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद 'बिस्मिल', अश्फाक उल्ला खाँ के साथ मिलकर उन्होंने एक क्रांतिकारी संगठन 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' बनाया। साइमन कमीशन का बहिष्कार करते हुए इस संगठन ने लाला लाजपत राय के ऊपर हुए प्राणघातक हमले का विरोध किया। जिनका कुछ दिनों के बाद निधन हो गया।उन्होंने इस घटना के जिम्मेदार पुलिश अधीक्षक सांडर्स की हत्या कर इसका बदला लिया 8 अप्रैल सन् 1929 को एसेम्बली हॉल में बम फेककर 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगाते हुए स्वयं को गिरफ्तार करवा लिया। उनको और उनके अन्य दो साथीयों रामप्रसाद बिश्मिल और अशफाक उल्ला खाँ को 23 मार्च सन् 1931 को फाँसी दे दी गई। बलिदान के एक दिन पहले अपने क्रांतिकारी कैदी साथियों को लिखे हुए तीसरे पत्र से उनकी त्याग भावना,देश के लिए भक्ति और सर्वस्व समर्पण का दृढ संकल्प स्पष्ट प्रकट होता है। उनका चरित्र निश्चय ही प्रेरणा का स्रोत है।
बलिदान से ठीक एक दिन पहले कैदी साथियों को लिखा गया अंतिम पत्र
साथियो ! 22 मार्च, 1931
स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता; लेकिन मैं एक शर्त पर जिन्दा रह सकता हूँ कि मैं कैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता।
मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतिक बन चूका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है - इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा हरगिज नहीं हो सकता।
आज मेरी कमजोरियां जनता के सामने नहीं है। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहीर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतिक चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए। लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएं अपने बच्चों को भगत सिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए क़ुरबानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।
हाँ, एक विचार भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थी तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरते पूरी कर सकता। इसके शिवाय मेरे मन में कभी लालच फाँसी से बचने का नहीं आया। मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा ? आज मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है, कामना है कि यह और नजदीक हो जाए।
आपका साथी
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